Saturday, April 24, 2010

the language of the eyelids.

चुपचाप
अपनी ही बांहों में
खामोश कदम
अपनी ही ख़ामोशी में
में और कुर्शी
साथ साथ
कुछ गुफ्तगू
अपने ही अन्दर
चलता विचारों का काफिला
चुप चाप हाथ छू लेते हैं
आकाश को धीमे से
मेरे दोनों होंठ
चुप चाप एक दूजे के साथ
ज़िंदगी कुछ आवाज़ किये चलती जाती है
और में सोचता हूँ
में बहुत शोर करता करता हूँ जहाँ में।
आँखों की पुतलियाँ
मचल मचल जाएँ
बार पूछती है आँखों से
कुछ तौ बताओ
आखिर माजरा क्या है
जीवन का॥